Sunday, November 7, 2010

आज जनसत्ता में घोटाले की तरंगें


पिछले नौ साल से 106.4 मेगाहर्ट्ज पर प्रसारित एफएम गोल्ड को नौ दिन के भीतर 100.1 मेगाहर्ट्ज पर लाने की घोषणा और फिर मीडिया में लगातार इसका विरोध किए जाने के बाद दबाव में इस फैसले को वापस लिए जाने से भावनात्मक स्तर पर जुड़े एफएम गोल्ड के करोड़ों श्रोताओं और सालों से इसकी बेहतरी के लिए काम करनेवाले रेडियोकर्मियों को यह फैसला खुशी और राहल देनेवाला है। लेकिन आनन-फानन में फ्रीक्वेंसी बदलकर एक जमे-जमाए चैनल को उजाड़ने, उसकी जगह निजी एफएम चैनल को फ्रीक्वेंसी दिए जाने और विरोध की स्थिति में उस फैसले से प्रसार भारती का पैर खींच लेने की घटना कोई राहत की बात नहीं बल्कि रेडियो तरंगों को लेकर भारी घोटाले का संकेत है।

पढ़ने-सुननेवाले लोगों को यह बात जरुर हैरान कर सकती है कि जिस गलत तरीके से इस देश में जमीन की अंधाधुन खरीद-फरोख्त जारी है,निजी कंपनियों और बिल्डरों को फायदा पहुंचाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के तंत्र कमजोर किए जाते हैं,ठीक उसी तरह हवा में तैरनेवाली तरंगों की खरीद-फरोख्त और इससे जुड़े निजी मीडिया संस्थानों को फायदा पहुंचाने का काम जारी है। इस मामले में सबसे दुखद पहलू है कि यह काम कोई और नहीं बल्कि स्वंय प्रसार भारती कर रहा है जिसके उपर जनसंचार माध्यमों के जरिए देश की सुरक्षा, सांस्कृतिक विविधता और जागरुकता का विस्तार करने की जिम्मेदारी है।

22 अक्टूबर को प्रसार भारती ने घोषणा की कि एफएम गोल्ड चैनल को 106.4 मेगाहर्ट्स से हटाकर100.1 मेगाहर्ट्ज कर दिया जाएगा। पिछले चार-पांच दिनों में प्रसार भारती के इस फैसले का मीडिया में जमकर विरोध हुआ और यह सवाल लगातार उठाए गए कि नौ साल से जिस फ्रीक्वेंसी पर जनता के पैसे से कोई रेडियो पहले से ही प्रसारित हो रहा है,वो न केवल सबसे ज्यादा सुना जानेवाला चैनल है बल्कि व्यावसायिक दृष्टिकोण से आकाशवाणी के लिए आमदनी का जरिया भी है तो उसे महज निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने की नीयत से कैसे हटाया जा सकता है? प्रसार भारती ने इस मामले में पहले तो तर्क दिया कि ऐसा वह सिर्फ इसलिए कर रहा है कि इससे एफएम गोल्ड की गुणवत्ता में पहले से बढ़ोतरी होगी। प्रसार भारती का यह तर्क बहुत ही लचर है। इस बात को हम प्रसार भारती के फैसले के पहले दिन से ही समझ रहे थे। यह एक बड़ा सवाल था कि नौ साल से स्थापित चैनल की फ्रीक्वेंसी को सिर्फ नौ दिन के भीतर बदलने के लिए प्रसार भारती इतनी बेचैन क्यों है? एफएम गोल्ड जिसे कि मौजूदा फ्रीक्वेंसी पर बहुत ही बेहतर तरीके से सुना जा सकता है,अचानक से इसे हटाने के पीछे उसकी क्या रणनीति हो सकती है? तब मीडिया में आए इस तरह के सवालों को ध्यान में रखते हुए प्रसार भारती ने घोषणा की कि 31 अक्टूबर से लेकर 3 अक्टूबर तक एफएम गोल्ड को दोनों फ्रीक्वेंसी पर पर सुना जा सकेगा। 4 अक्टूबर से यह चैनल सिर्फ 100.1 मेगाहर्ट्ज पर होगा।

दो दिनों तक हमने लगातार दोनों ही फ्रीक्वेंसी पर एफएम गोल्ड को सुना और कुछ हिस्से रिकार्ड भी किए। हमने साफ तौर पर महसूस किया कि जिस एफएम गोल्ड को 106.4 मेगाहर्ट्ज पर सुना, उसकी गुणवत्ता के आगे 100.1 मेगाहर्ट्स पर एफएम गोल्ड की गुणवत्ता बहुत ही घटिया है। एक ही वॉल्यूम क्षमता पर दोनों फ्रीक्वेंसी पर सुनने से 100.1 पर आकर आवाज बिल्कुल दब जाती है। 100.1 वही फ्रीक्वेंसी है जिस पर राष्ट्रमंडल खेलों के लिए अलग से एक रेडियो चैनल स्थापित किया गया और जिसके लिए लाखों रुपये खर्च किए गए। यह अलग बात है कि राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी जानकारी के लिए श्रोताओं ने इस चैनल को बिल्कुल नहीं सुना,इस पर राष्ट्रमंडल की खबरों से ज्यादा मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित हुए। नतीजा इस दौरान यह चैनल अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। अब दो महीने बाद राष्ट्रमंडल खेलों से पैदा हुए बाकी कचरे की तरह सरकार प्रसार भारती के सहयोग से इस चैनल को कचरा मानकर निबटाना चाहती है। जिस खेल भावना के विकास के लिए अकेले रेडियो पर लाखों रुपये खर्च हुए,उस रेडियो को दो महीने बाद ही रद्दी की टोकरी में डालने और उसकी जगह एफएम गोल्ड को स्थापित करने की बात पचाना किसी के लिए भी आसान नहीं है। संभव है राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले के साथ इसकी भी जांच से कुछ नतीजे निकलकर सामने आएं। नहीं तो, होना तो यह चाहिए कि प्रसार भारती राष्ट्रमंडल के नाम पर बने इस चैनल को पूरी तरह खेल को समर्पित कर दे। इससे न केवल खेलजगत को फायदा होगा, अलग से आकाशवाणी की आमदनी बढ़ेगी बल्कि एफएम गोल्ड और रेनवो को भी विकास का ज्यादा मौका मिलेगा। मीडिया में खासकर अंग्रेजी अखबारों में यह बात प्रमुखता से और लगातार पहले पन्ने पर आते रहे।

रेडियो की फ्रीक्वेंसी बदलने का मामला सिर्फ नंबर के बदल जाने का मामला नहीं है। रेडियो के लिए फ्रीक्वेंसी ही उसका ब्रांड हैं। खासतौर से अब जबकि एफएम चैनलों के जरिए एक माध्यम के तौर पर रेडियो का विस्तार हो रहा है जबकि एक संचार उपकरण के तौर पर रेडियो की हालत बहुत ही खराब है। अब श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग रेडियो या तो मोबाइल फोन के जरिए,या तो आइपॉड या एमपी थ्री के जरिए या फिर कम्प्यूटर पर मुफ्त में उपलब्ध साइटों के जरिए सुनता है,उनके लिए रेडियो चैनलों के नाम से ज्यादा फ्रीक्वेंसी मायने रखती है। सबसे बड़ा सवाल है कि प्रसार भारती ने नौ दिन में एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदलने के फैसले का प्रसार कितना किया? क्या उसने लगातार विज्ञापन और अभियान के माध्यम से यह माहौल बनाने की कोशिश की कि एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदली जा रही है? ले-देकर जो भी सूचना आयी वो या तो आकाशवाणी की वेबसाइट पर या फिर आकाशवाणी के चैनलों पर ही। इन सबके साथ एक बड़ा सवाल कि अगर एफएम गोल्ड की मौजूदा फ्रीक्वेंसी खराब है तो उसे कोई निजी मुनाफा कमानेवाली मीडिया कंपनी क्यों लेना चाहती है?

4 नबम्वर से एफएम गोल्ड को अपनी नयी फ्रीक्वेंसी 100.1 पर आ जाना चाहिए था। लेकिन प्रसार भारती ने अपने इस फैसले से पैर खींचते हुए उसे वापस वहीं पुरानी फ्रीक्वेंसी 106.4 पर बने रहने की बात की। जाहिर है प्रसार भारती का यह फैसला पहले की तरह ही उसके खुद का फैसला नहीं है। देशभर के राष्ट्रीय अखबारों ने फ्रीक्वेंसी बदलने का जिस तरह से विरोध किया,प्रसार भारती उस दबाव में आकर अपने फैसले वापस लिए। लेकिन,फिर वही सवाल कि क्या प्रसार भारती ने अपने इस नए फैसले के लिए कोई पहले से रणनीति बनायी?

इस पूरे मामले में जो दिलचस्प पहलू निकलकर सामने आए,उस पर बात करने से फ्रीक्वेंसी यानी रेडियो तरंगों को लेकर प्रसार भारती के भीतर का चल रहा बंदरबांट बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

पहली बात कि एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदले जाने की किसी भी तरह की जानकारी स्वयं प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे को नहीं दी गयी। मृणाल पांडे ने एक अंग्रेजी अखबार/ दि हिन्दू को बताया कि उन्हें इस बात की जानकारी मीडिया में आयी खबरों से मिली। इससे पहले भी आकाशवाणी के भीतर भारतीय भाषा को लेकर जो विवाद चल रहे हैं, उस पर गौर करें जिसमें नेपाली को विदेशी भाषा करार दिया गया और उसी हिसाब से प्रस्तोताओं को भुगतान किया,7 सितंबर को संसदीय राजभाषा समिति की मौखिक साक्ष्य सत्र में आकाशवाणी को इसके लिए फटकार लगायी गयी, तो यहां भी मृणाल पांडे को इससे दूर रखा गया। इससे समझा जा सकता है कि प्रसार भारती के भीतर किस तरह के फैसले लिए जा रहे हैं और काम हो रहा है जिसके बारे में स्वयं बोर्ड के अध्यक्ष को जानकारी नहीं है।

दूसरी बात, फ्रीक्वेंसी बदले जाने के सवाल पर जब यह बात सामने आयी कि 2006 में ही दूसरे दौर में एफएम चैनलों की विस्तार योजना के तहत क्षेत्रीय स्तर पर 106.4 मेगाहर्ट्ज की फ्रीक्वेंसी बीएजी प्रोडक्शन को दे दी गयी थी,इससे एक नयी कहानी सामने आयी।

हरियाणा के करनाल और हिसार जैसी जगहों पर एक ही फ्रीक्वेंसी पर आकाशवाणी का एफएम गोल्ड चैनल भी चलता रहा और बीएजी प्रोडक्शन का रेडियो धमाल भी। ऐसा होने से एक-दूसरे के उपर फ्रीक्वेंसी की चढ़ा-चढ़ी होती रही और नतीजा यह कि वहां के श्रोता एफएम गोल्ड को बेहतर तरीके से सुन नहीं पाते। अब जबकि प्रसार भारती ने दिल्ली में एफएम गोल्ड को पुरानी फ्रीक्वेंसी पर बने रहने की बात दोहरायी है तो सवाल उठते हैं उन इलाकों में जहां कि एक ही फ्रीक्वेंसी पर निजी चैनल भी चल रहे हैं और एफएम गोल्ड भी,उसका क्या होगा? दिल्ली के श्रोताओं की समस्या फिर भी हल होती दिख रही है लेकिन देश के बाकी हिस्सों का क्या होगा? साथ ही अगर 2006 में ही निजी चैनल के हाथों 106.4 मेगाहर्ट्ज की फ्रीक्वेंसी दे दी गयी थी तो अब तक उस पर एफएम गोल्ड क्यों चलाया जाता रहा? आनन-फानन में फैसला लेकर और पुरानी फ्रीक्वेंसी को एफएम गोल्ड के हवाले कर देने से प्रसार भारती को अपने गले की हड्डी निकलती जरुरी दिखाई दे रही है लेकिन श्रोताओं के सामने एक बड़े कुचक्र का संकेत सामने आया है और वह यह कि

प्रसार भारती आकाशवाणी के तमाम चैनलों को 100 मेगाहर्ट्ज से 103.7 मेगाहर्ट्ज तक रखना चाहता है। ऐसा करने से बाकी की फ्रीक्वेंसी निजी कंपनियों के लिए सुरक्षित हो जाएगी। इस साल के दिसंबर में एफएम चैनलों के विस्तार का जो तीसरा दौर शुरु हुआ,ऐसा करने से निजी एफएम चैनलों पर समाचार प्रसारित किए जाने की जो बात चल रही है, उसका रास्ता साफ होगा। आज निजी चैनलों के लिए एफएम गोल्ड सबसे बड़ा बाधक है क्योंकि इस पर अभी 46 प्रतिशत सामग्री खबरों से संबंधित होती है। फ्रीक्वेंसी बदलने से एफएम गोल्ड अपने आप कमजोर हो जाएगा और निजी चैनलों को खबर के नाम पर वही सब करने का मौका मिल सकेगा जो कि टेलीविजन चैनल कर रहे हैं।

एफएम गोल्ड को कमजोर और पंगु करने की कवायद पिछले कई महीनों से चल रही है। कभी महीनों प्रस्तोताओं का वेतन रोककर तो कभी गैरजरुरी शर्तों पर दबाव में हस्ताक्षर करवाकर। तकनीकी रुप से चैनल के लिए 20 मेगावाट क्षमता आवंटित करने की बात पर सिर्फ 10 मेगावाट क्षमता मुहैया करवाकर इसकी गुणवत्ता खराब की जा रही है। इस तरह रेडियो तरंगों को लेकर प्रसार भारती के भीतर भारी गड़बड़ियां चल रही है और अपने स्थापित चैनलों को तहस-नहस करके निजी चैनलों को लाभ पहुंचाने का काम हो रहा है।

चूंकि यह जमीन,पानी,प्राकृतिक संसाधनों की तरह सीधे-सीधे लोगों की जानकारी में नहीं है इसलिए इसके विरोध में आवाजें नहीं उठतीं। हम इस फैसले से खुश हो सकते हैं कि प्रसार भारती हमारे लोकप्रिय चैनल का गला घोंटने में नाकाम रहा है और हमें हमारा चैनल वापस उसी फ्रीक्वेंसी पर मिल रहा है। लेकिन देखना होगा कि तरंगों के इस घोटाले में शामिल बिचौलिए की पहचान प्रसार भारती और सरकारी तंत्र कितनी गंभीरता से कर पाती है और प्रसार भारती के भीतर संभावित बड़े घोटाले के पीछे के सच को कितना उजागर कर पाती है?

विनीत कुमार

( मूलतः जनसत्ता 7 नबम्वर 2010 में मामूली संसोधन के साथ प्रकाशित

5 comments:

  1. it is saddening to know about the state of affairs in the air. nothing could be heard on 100.1 how much ever we tried during the announcements ,which caused so much worry to the gold listeners. why has 106.4 been allocated to radio dhamaal in the first place ,even for smaller cities ? there seems to be no end to ''ghotaalas'' in this country . 106.4 should be withdrawn from radio dhamaal and the frequency be left alone for f m gold .

    thanks for the informative and well written article though it has some errors like ''from 31st october to 3rd october''[should be 3rd nov.], and ''4th october [should be 4th nov.]'' in the last two lines of the third para .

    hoping for a good future of our beloved channel i.e. f m gold !

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  2. लेखन अपने आपमें रचनाधर्मिता का परिचायक है. लिखना जारी रखें, बेशक कोई समर्थन करे या नहीं!

    बिना आलोचना के भी लिखने का मजा नहीं!

    यदि समय हो तो आप निम्न ब्लॉग पर लीक से हटकर एक लेख

    "आपने पुलिस के लिए क्या किया है?"

    पढ़ सकते है.

    http://baasvoice.blogspot.com/
    Thanks.

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